कला, लोककला और समाज का अंतरसंबंध

लेखक
  • डॉ. वीना चौबे

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संकेत शब्द:
आदिवासी कला, जनजातीय कला, प्रागैतिहासिक काल, समाज, कला, संस्कृति, जीवन मूल्य, गुफा चित्रकला, परंपरा, नृत्य, भाषा, शिल्प कला, लोक कथाएँ, रंगमंच, गायन, बिरसा मुंडा, जनजातीय गौरव दिवस, अजंता, भीमबेटका
सार

कला व समाज का 'अटूट संबन्ध है। प्रारम्भ में उपयोगी व सुन्दर के बीच कोई भेद नहीं था और अधिकतर सभी उपयोगी कार्यों को भी कला के अर्थों में ही समझा जाता था। एक कपड़ा बुनने वाला बुनकर, माला बनाने वाला माली, पात्र बनाने वाला कुम्हार सभी कलात्मक गुणों को प्रकट करते हैं। इसका अर्थ यह निकलता है कि समाज की आवश्यकता की पूर्ति के लिए उपयोगी वस्तुओं का सृजन किया गया। इन उपयोगी वस्तुओं के सृजन में अधिकाधिक कलात्मक गुंण तकनीकी कुशलता से प्रकट होते हैं।
सामाजिक आवश्यकताओं को कला गुणों द्वारा पूर्ण किया जाने लगा। कुछ विद्वानों का मानना है। कि बिना संगठित समाज के उत्तम कला का सृजन नहीं हो सकता। कला को प्रभावित करने वाले बहुत से तत्व होते हैं जिनमें समाज भी एक प्रभावकारी तत्व माना गया है, कला की जड़े-समाज में बहुत गहरी फैली होती हैं वहीं से उन्हें ऊर्जा, जीवन व अभिव्यक्ति मिलती है, इस दृष्टि से (1) वैयक्तिक (2) सामुहिक दो रूप होते हैं दोनो ही प्रकार की कलाएं समाज से प्रभावित होती है, कला लोक मानस को प्रभावित करने की अतुलनीय क्षमता रखती है सर्वमान्य कला रूप भी अपनी अभिव्यक्ति व सौन्दर्य गुणों में श्रेष्ठ होते हैं तभी सर्वमान्य होते हैं, और कला रूपों से ही जीवन‌ मूल्यों दर्शन भी बोते हैं जो किसी भी संस्कृति की अमूल्य धरोहर हैं जिनके विषय व रूप समाज की आवश्यकताओं के अनुसार निर्धारित होते हैं।
कला ने मानव समाज के यथार्थ विषयों को सीधे ही जीवन से लेकर विषय-वस्तु को स्वीकार किया गया है। इस प्रकार देखा गया की समाज में हर काल में एक विशिष्ट विचार या दर्शन का प्रभाव रहता है, और वह जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित करता है।
कला समाज के लिए मनोरंजन प्रदान करने वाली, नैतिक चरित्र उत्थान करने वाली, मानसिक पीड़ा हरने वाली, सौन्दर्य बोध को विकसित करने वाली वस्तु है। कला सम्प्रेषण का सशक्त माध्यम है।  मनोरंजन, इन्द्रिय सुख व उथले आनन्द की कसौटी पर ही कला को नहीं आंका जा सकता, समाज में व्याप्त कला उसके चरित्र, संस्कृति व मूल्यों को प्रदर्शित करती है किन्तु कला का लक्ष्य सामाजिक धार्मिक नहीं है, पर यदि वह अपने कलामूल्यों को सुरक्षित रखते हुए भी यह कार्य सम्पन्न करती है और विषयवस्तु व रूप योजनाएं धार्मिक व सामाजिक होती हैं तो विषयवस्तु का होना बाधा नहीं डालता, जिसका उदाहरण अजन्ता की कला व मूर्तिशिल्प में हुआ है, कलागत विशेषताएं विषय वस्तु के होने पर भी कम नहीं होती।

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प्रकाशित
2025-09-30
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How to Cite

कला, लोककला और समाज का अंतरसंबंध. (2025). ART ORBIT, 1(03), 63-68. https://artorbit.in/index.php/ao/article/view/14