चरुलता: साहित्य और सिनेमा में नारी की तलाश
- लेखक
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अरुण कुमार यादव
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- संकेत शब्द:
- चरुलता, नारी की पहचान, साहित्य और सिनेमा, रवींद्रनाथ टैगोर और सत्यजीत रे, अस्तित्व की तलाश
- सार
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"चरुलता: साहित्य और सिनेमा में नारी की तलाश" साहित्य और सिनेमा दोनों ही समाज का आईना होते हैं, जो समय-समय पर इंसान के विचारों, संवेदनाओं और संघर्षों को सामने लाते हैं। जब हम इन माध्यमों में स्त्री की भूमिका को देखते हैं, तो यह साफ़ होता है कि अक्सर उसकी आवाज़ या तो दबा दी जाती है या फिर बहुत सीमित दायरे में दिखाई जाती है। ऐसे में रवींद्रनाथ टैगोर की कहानी "नष्टनीड़" (टूटा हुआ घोंसला) और सत्यजीत रे की फ़िल्म "चरुलता" एक अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत करती हैं, जहाँ एक स्त्री चारुलता केवल पत्नी या घर की देखभाल करने वाली नहीं, बल्कि सोचने-समझने वाली, अपने अस्तित्व को खोजने वाली एक भावुक और बुद्धिमान इंसान के रूप में सामने आती है।
टैगोर की कहानी में चारुलता की इच्छाएँ और सोच ज़्यादा साफ़ तौर पर नहीं कही गई हैं, बल्कि उन्हें इशारों और भावनाओं के ज़रिए दिखाया गया है। वहीं, सत्यजीत रे ने अपनी फ़िल्म में इन भावनाओं को और खुलकर, साफ़ और गहराई से दिखाया है जैसे कैमरे की नज़र, चारुलता की खामोशी, और उसके अकेलेपन के दृश्य।
यह शोध इस बात को समझने की कोशिश करता है कि कैसे साहित्य (कहानी) और सिनेमा (फ़िल्म) दोनों ही स्त्री के अंदर चल रहे उसकी इच्छाएँ, अकेलापन, और आत्म-संघर्ष और उसकी पहचान की तलाश को अपने-अपने तरीक़े से दिखाते हैं, टैगोर जहाँ कहानी के ज़रिए चारुलता की खामोशी को दिखाते हैं, वहीं रे उस खामोशी को सिनेमा की भाषा में आवाज़ देते हैं कभी कैमरे के मूवमेंट से, कभी उसकी आँखों की झलक से।
यह अध्ययन यह जानने की कोशिश करता है कि साहित्य और सिनेमा जैसे दो अलग-अलग माध्यमों में चारुलता की 'तलाश' को किस तरह से अभिव्यक्त किया गया है, और कैसे यह तलाश आज भी हर उस स्त्री से जुड़ी हुई है, जो अपनी पहचान और अस्तित्व को लेकर सवाल करती है।
- Author Biography
- प्रकाशित
- 2025-09-30
- खंड
- Articles
- License
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